जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई ।जन्मदिन एक ख़ास दिन हैं जिस दिन जन्म लिया था

जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई ।
हमारा जन्म तभी सफल होगा जब हम यदि सच्चे अर्थ में मानव होंगे । मानव बनना हो तो हमारे अंदर कृतज्ञता का गुण का होना अत्यंत आवश्यक है । ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए नित्य तीन महत्व के समय प्रभु का स्मरण करना चाहिए उसके लिए त्रिकाल संध्या करनी चाहिए । यह बात एक भावगीत के माध्यम से समझायी गयी है, सो गीत नीचे प्रस्तुत है । इसे एक बार अवश्य पढीयेगा यह मेरा आपसे हार्दिक अनुरोध है, और यदि आपको विचार अच्छे लगे तो इसका जीवन में अनुकरण अवश्य किजियेगा तो आप सच्चे अर्थ में मानव कहलाने योग्य होंगे व आपको प्रभु स्पर्श की अनुभूति होगी व मानव जीवन सफल होगा । धन्यवाद !
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भावगीत त्रिकाल संध्या
तर्ज : वो दिल कहाँ से लावूं तेरी याद जो भूलादे (फिल्म : भरोसा)
वो नर पशु समान है जो प्रभु प्रेम को भूलादे ।
प्रभु प्रेम को समझले, त्रिकाल संध्या करले ।।
दिन रात स्मृति शक्ति, और शांति हैं वे देते
प्रभु प्रेम को समझकर, प्रभु स्मरण करले ।।१।।
परमेश्वरसे जीवन मिला है, सदा संगमें रहता तेरे ।
सुबह प्रेम से उठाते, और स्मृतिदान देते ।।२।।
उठते ही सबसे पहले, कर दर्शन तू करले ।
भूमिको वन्दन करके, गोविन्द को याद करले ।।३।।
भोजन यह यज्ञ कर्म है, उदरभरण नहीं है ये ।
प्रभु अर्पण करके, प्रसाद करके पाले ।।४।।
शयन करने से पहले, प्रभुका स्मरण तू करले ।
भूलोंको याद करके, प्रभुसे क्षमा तू मांग ले ।।५।।
वो नर पशु समान है जो प्रभु प्रेम को भूलादे ।
प्रभु प्रेम को समझले, त्रिकाल संध्या करले ।।
दिन रात स्मृति शक्ति, और शांति हैं वे देते
प्रभु प्रेम को समझकर, प्रभु का स्मरण करले ।।१।।
आज के इस कराल कलियुग में मानव इतना भोगवादी, कांचनमुल्यवादी बन गया है कि, बिना कोई स्वार्थ के वह एक कदम भी रखने को तैयार नही है। भोग के सिवाय कोई दुसरा विचार करना ऐसा उसे नहीं लगता। ऐसे युग में भी आप जैसे सज्जन लोग जीवन विषयक विचार करने समय निकाल मानव जीवन तथा त्रिकाल संध्या के बारेमें जानकारी लेने यह विचार पढ रहें हैं, यह देखकर बहुत आनंद हुवा, भगवान नें हमें अनमोल ऐसा मनुष्य जन्म दिया है। सचमुच हम धन्य हैं, जो हमें मनुष्य जन्म मिला, मनुष्य जन्म मिलना यह तो भाग्य की बात है ही लेकीन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिए यह समझना बहुत बडे भाग्य कि बात है।
मानव जीवन ईश्वर ने दी हुई अमुल्य भेंट है। मानव जीवन प्रभु कृपा और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किए हुए अनेक सुकृत्योंका परिणाम है। हमारे ऋषि मुनियों और साधू संतों ने भी मानव जीवन को अमुल्य रत्न कहा है। ''जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्'' इस श्लोक में श्रीमद् आद्य-शंकराचार्य ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है। महाभारत में भी कहा है, ''न हि मानुष्यात श्रेष्ठतरं हि किंचीत'' प्रभु ने दी हुयी यह अलौकिक भेंट सुरक्षित रखकर उसका योग्य विकास करते हुए वापस शिव में मिल जाए यही ईश्वर की इच्छा है ।
इस विशाल जगतमें मनुष्य और दुसरे अनेक प्राणी रहते है। मनुष्य और अन्य प्राणीयों मे आहार, निद्रा, भय और मैथुन समान ही है। जैसे भुक लगे तो खाना खाना, निंद आयें तो सोना, संकट आये तो घबरा जाना, बच्चे पैदा करना और मौत आये तो मर जाना क्या इतना ही मनुष्य जीवन है? मनुष्य जीवन एक अनमोल हिरा है, उसकी किमत हमें समझनी चाहिये।
इस विशाल जगतमें मनुष्य और दुसरे अनेक प्राणी रहते है। मनुष्य और अन्य प्राणीयों में आहार, निद्रा, भय, मैथनु आदि समान है। लेकिन भगवान नें अपने सर्वश्रेंष्ठ कृति के रुप में बुध्दि मनुष्य को विशेष रुप से दी है। विचार शक्ति मानव की विशेष शक्ति है। ईश्वर निर्मीत जगतका अंतीम सर्जन मानव है। प्रभुने अपने लाडले बेटे मानव को मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार देकर सर्व श्रेष्ठ बनाया हैं, प्रभुकी प्रदान की हुई इस अजोड शक्ति से वह समस्त संसार के ऊपर शासन कर सकता है। इस प्रकार विचार शक्ति मानव की विशेष शक्ति है, इसलिये विचार पूर्वक जीवन जीने वाले मनुष्य को ही सच्चे अर्थ में मानव कह सकेंगे।
विचार के अतिरिक्त मानव में और कौन कौन से गुण होने चाहिये जिससे वह मानव कहलाने योग्य हो। यदि हमें सिर्फ मानव शरीर मिला, मानव आकार मिला तो क्या हम मानव बन गये जैसे कोई 20 साल का युवा है यदि उसमें पुरुषत्व के गुण न हो तो क्या? हम उसे पुरुष कहेंगे। कदापि नही, उसी प्रकार मानव में मानवता के गुण होने चाहिये तभी सच्चे अर्थ में हम मानव कह सकेंगे। यदि हम सच्चे अर्थ में मानव होंगे तो हममें (हमारे) अंदर निम्न चार गुण आने चाहिये और वे है- 1) कृतज्ञता 2) अस्मिता 3) भावमयता 4) कार्यप्रवणता । भगवान ने भी गीता में मनुष्य की व्याख्या की है। गीता में भगवानने कहा है
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
ममवर्तमानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥
(गीता 4-11)
जो मेरे दिखाए हुए मार्ग पर चलता है वही मनुष्य है। तो भगवान कौन सा मार्ग बताते है, भगवान का कार्य कौनसा है?
परित्राणाय साधूनां विनाशयच दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
सज्जनों का रक्षण, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना ये तीन भगवान के कर्म है। ''परित्राणाय साधुनां'' क्या हम साधुओं का रक्षण करने वाले है? सरल साधु वृत्ति के सज्जन लोगों के कार्य के लिये घिस जाना यह भगवान का कार्य कहलाता है। आज हमारा वर्तन एकदम उलटा है। कोई साधु पुरुष, सज्जन, प्रभु भक्त मिलता है तो हम उसकी उपेक्षा करते है और कोई दुर्जन मनुष्य गुंडा मिलता है तो हम उसे नमस्कार करते है। भगवान का वर्तन कैसा है?
''विनाशायच दुष्कृताम'' सात्त्विक कर्मो के द्वारा दुष्कृत्यों को समाप्त करना होता है। हम यह सब सफाई करते है, वह भगवान का काम हम करते है। यह घर भगवान का है। अर्थात अपना घर है। ''धर्मसंस्थापनार्थाय'' धर्म अर्थात क्या है? धर्म की रक्षा करनेका तात्पर्य क्या है? क्या वह कार्य सोने का भंडार है की उसके चारों ओंर पहरा करना है? धर्म यानी क्या है यह बहुत व्यापक प्रश्न है। संक्षेप में कहना हो तो धर्म का रक्षण करना यानी मनुष्य में जो सुप्त शक्ति है उसे जागृत करना। प्रत्येक मानव के अंदर सुप्त शक्ति विद्यमान होती है। इसलिये हाथ में वेद, गीता लेकर मानव के पास जाओं और उसकी सुप्त शक्ति को जागृत करों। यह भगवान का कार्य है। मनुष्य में विद्यमान आत्म शक्ति सुप्त- शक्ति को जागृत करना यही विश्वरुप का काम है। इसलिए भगवान ने कहा है- “ममवर्तमानु वर्तंन्ते मनुष्या:” जो मेरे दिखाए हुवे मार्ग पर चलता है वह मनुष्य है।
भगवान के दिखाए मार्गपर चलने के लिये सर्व प्रथम हमें मानव बनना होगा और मानवता के गुणों को संपादन करना होगा। सर्व प्रथम हमें कृतज्ञता जीवन में लानी होगी। मानव शक्तिशाली प्राणी है, लेकीन शक्तिशाली बनने के लिये उसे दुसरों का सहारा लेना पडता है। शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौध्दिक विकास और आघ्यात्मिक विकास करने के लिए मनुष्य को बहुतसे लोगों का सहारा लेना पडता है। भगवान, मां-बाप, संस्कृति और ऋषी इन सभी कें नि:सीम प्रेम का परिणाम ही मानव जीवन है। इसलिये विकसीत मानव को इन सभी के द्वारा किये हुए असीम प्रेम का कृतज्ञता पुर्वक स्मरण करना चाहिये मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। जैसे सुत्र अपनी भारतीय संस्कृति के आधार स्तंभ क्योकि यदि मानव कृतज्ञता और भावमयता भूल जाएगा तो उसमें और पशुमें कोई अंतर नही रहेगा।
कृतज्ञता का गुण पशु में भी होता है। यह गुण उन्हे निसर्ग से मिला है। प्राचिन काल में एक राजा गुलाम के साथ जंगल में शिकार करने गया। गुलाम खुब सबेरे पानी भरने नदी के पास गया तो वहां एक सिंह को किनारे बैठा देखा। वह घबडाया हुवा बैठा था। ध्यानसे देखने पर पता चला कि सिंह के आखों में आंसू थे। गुलाम हिम्मत करके सिंह के पास गया, देखा तो सिंह के पैर में कांटा चुभा था और दर्द के मारें वह रो रहा था। उसनें हिंमत करके उसके पैरोंका कांटा निकालकर दवा का लेप लगाकर पट्टी बांध दी तो सिंह प्यार से चाटने लगा। वर्षो बीत गये, गुलाम से अपराध हुआ और राजाने प्राणांत सजा सुनाई। जंगल से सिंह को पकडकर लाया गया तथा चार दिन तक भुखा रखा गया और फिर गुलाम को सिंह के पास ले जाया गया और गुलाम के आगे सिंहका पिंजरा खोल दिया गया। गुलाम नें भगवान को याद किया छुटते ही सिंह छलांग मारकर आया लेकिन गुलाम को सामने देखते ही शांत हो गया। नदी किनारे गुलाम ने उसपर किया हुवा उपकार याद आया। भुक होने पर भी पैर चाटने लगा। राजा को आश्चर्य हुवा गुलाम से इसका कारण पुछा, गुलाम ने राजाको सारा वृतांत सुनाया तब राजा को भी पश्चाताप हुवा। यह तो एक पशु है, एक उपकार को उसने याद रखा और मैं इतने वर्षोकी सेवा भूल गया। राजाने गुलामसे माफी मांगी और उसकी सजा माफ की तथा मान सम्मान भेट देकर गुलाम को छोड दिया ।
हमारी संस्कृति मां-बाप और ऋषियों का ऋण कृतज्ञतापूर्वक याद करने को कहती है, तो फिर जिसने मानव को ऐसा अमुल्य जीवन प्रदान किया है, उस करुणामय परमेश्वरको हम कृतज्ञतापुर्वक याद नहीं करेंगे तो हम मानव कहलाने के योग्य नहीं है।
हमारे जीवन में से यदि कृतज्ञता निकल गई तो मानव जीवन ही बेकार हो जाएगा। जैसे वित्त, सत्ता, विद्या, कला, गायन, वादन, चित्रकला, शक्ति, संतति सौंदर्य यह सब बातें मनुष्य के लिए आवश्यक है। यह मनुष्य का मुल्य बढाने वाली है परंतु कृतज्ञता यदि नहीं है तो मानव जीवन का कोई मुल्य नहीं जैसे एकाद शरीर को खूब सुगंधी तेल, पावडर स्नो वगैरा लगाया लेकिन यदि उसमें से प्राण निकल गया तो शरीर की कीमत क्या?
एक दुकानमें सेठने मुनीम को 1 लाख रुपये का चेक दिया और मुनिमजी की लापरवाही से यदि उसमेंका 1 का आंकडा मिट गया तो? बँक में उसकी किमत क्या? यदि एकाद शुण्य मिट जाता तो चलता। कहने का तात्पर्य की जीवन में यदि कृतज्ञता का गुण न हो तो मानव जीवन व्यर्थ। इसिलीये हमे माँ-बाप ऋषी तथा भगवान के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिये क्योंकि मैं पशु नहीं हुं, भगवान ने मुझे बुध्दि दी है तथा भावना दी है इसलिये भगवान को कृतज्ञता पुर्वक नमस्कार करना चाहिये ।
आज हम देखते हैं की बहुत से लोग भगवान को नमस्कार करते है। लेकिन नमस्कार करने के पीछे बहुत से कारण हो सकते है। जैसे एक रित के अनुसार या रुढी के अनुसार नमस्कार करना। जैसे हमारे बडे बुजुर्ग करते है इसलिये नमस्कार करना, दुसरा भगवान के डर से नमस्कार करना, कहीं भगवान मेरा कुछ बिगाड न दें इस डर से नमस्कार करना। तिसरा स्वार्थ से नमस्कार करना, भगवान अमुक अमुक मेरा काम कर देना मै तेरे लिये ऐसा ऐसा करुंगा अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये नमस्कार करता है। चौथा नमस्कार प्रीति से याने प्रेम से भगवान को नमस्कार करना है।
भगवान के प्रति कृतज्ञता समझकर किया हुआ नमस्कार योग्य है परंतु, यह कृतज्ञता कब समझेगी? तो कृतज्ञता याने क्या? यह हमें देखना होगा। कृत+ज्ञ याने कृतज्ञ याने किया हुवा जानने वाला। भगवान ने हमारे लिये क्या क्या किया यह जो जानता है वह कृतज्ञ। आज हम जरा विचार करेंगे की भगवान ने हमारे लिये क्या क्या किया है। सचमुच भगवान के उपकार का क्या वर्णन करें। भगवान नें कितनी बडी सृष्टी निर्माण कि, कितना बडा विश्व? कैसे है प्रभुकी रचना? इसका यदि हम विचार करेंगें तो हमारा दिमाख ही काम नही करेगा। कितने पशु, पक्षी, प्राणि, नदीयाँ, पर्वत, तारें, समुद्र, आकाश, सूर्य, चंद्र अमर्याद है। सब कुछ किटक से लेकर हत्ती जैसे महाकाय प्राणि इन सब का निर्माण करने वाले इस विश्व का कलाकार कैसा हौगा?
विस्तृत विश्व नाट्यशाला है, तु नटखट नटराया ।
काल यौवनी का पट है तेरा, घटघट बीच समाया ॥
जलचर स्थलचर नभचर, नाना कितने रुप बनाया ।
तेरी महीमा तूं ही जाने, मुनिजन मन अकुलाया ॥
कहाँ वह विश्वचालक, विश्व नियंता कर्तूंमकर्तूं अन्यथा कर्तुं समर्थ प्रभु और कहाँ मै क्या मेरे किये हुवे नमस्कार से, वर्णन से भगवान खुश होंगे? भगवान को खुश करने के लिये नहीे कारण भगवान तो पहले ही मुझ पर खुश है, इसलिये तो मुझ पर इतना प्रेम करते है वह भी निस्वार्थ भाव से करते है। इसलिये उस प्रेम को जानकर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये नमस्कार करना है। भगवान ने हमपर जो प्रेम की वर्षा कि है उसकी यदि हम यादी बनाएगें तो हमें कागज भी पुरेगा नही। पुष्पदंत कवी कहते है -
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुंपात्रे, सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्व कालं, तदपि तव गुणानामीशं पारं न याति ॥
समुद्र रुपी बर्तनमें नीलगिरी पर्वत जितना काजल भरा हो, पृथ्वी जैसा कागज हो, कल्पवृक्ष की कलम हो और इस कलम को पकड कर यदि सरस्वती स्वयं निरंतर लिखने बैठे तो भी हे ईश्वर आपके गुणोंका अंत नहीं। इतनी आपकी महानता है।
हमारी वृत्ति आज जवाँई जैसी हो गई है क्योंकि जवाँईं को कितना भी दिया तो संतुष्ट नही होता। एक जवाँइ के यहाँ ससुर नें आम भेजे तो पत्नि ने कहा देखो मेरे पिताजी का तुम पर कितना स्नेह है, प्रेम है, तुम्हारे लिये आम भेजे है। तो जवाँइ बोलता है इसमें क्या विशेष है फीर एक टोकरी भरकर आम आ गए। फिर गाडी भरकर आम आगए। फिर भी जवाँइ कहता है इसमें क्या विशेष है। फिर जवाँइ को एक आम का झाड ही दे दिया फिर पुरी अमराई दे दी तो भी जवाँइ कभी भी संतुष्ट नहीं होता उसी प्रकार हमारी आज वृत्ति बनी हुई है। भगवान हमें कितना भी दे दे हमारी मांगे चालू ही रहेंगी।
भगवान के उपकारों का यदि हम स्मरण करेंगे तो ह्रदय भर आता है। भगवान ने हमारे लिए कितनी सुंदर सृष्टि का निर्माण किया मोर, पोपट, खरगोश, हरिण, यह सब किसलिए निर्माण किया? तो मनुष्य हंसते रहना चाहिए, लेकिन एक हम हैं कि हमारा रोना चालू ही रहता है। जैसे एक पिता अपने बच्चे की हंसी के लिए खीलौने लाकर देता है, उसी प्रकार भगवान ने मानव हंसते रहना चाहिए इसलिए सृष्टि का निर्माण किया।
भगवान ने हमारे शरीर की कैसी रचना की है। सब मानव के अवयवों की रचना समान ही है। फिर भी दो मनुष्यों की शक्ल एक दुसरे से नहीं मिलती, नहीं तो कितनी गडबड हो जाती।
हम छोटे से बडे कैसे हो गये विज्ञान कहता है कि 180 दिन में शरीर के प्रत्येक पेशी बदल जाते हैं। और हमें मालूम भी नहीं पडता। वातावरण में कितने ही प्रकार के वायू होते है, हैड्रोजन, नायट्रोजन, कार्बनडाय ऑक्साईड लेकिन सबमें से केवल ऑक्सीजन ही भीतर जाता है। तो किसने बिठाया ऐसा फिल्टर क्या हमनें कभी विचार किया है? ं
हमारे घर में रात में टयूबलाइट, बल्ब ईत्यादि जलाते हैं तो हमें विद्यूत मंडल से हर महिने बिल आ जाता है। भगवान ने मानव के लिए सूर्य दिया है जिससे केवल प्रकाश ही नहीं अपितु प्रचंड उर्जा भी मिलती है। और उर्जा भी कितनी? प्रति सेकंड दो लाख टन उसका कभी हमें बिल आया? नगरपालिका वाले हर महिने पानी के लिए नलपट्टी मांगते है। पर जिसनें सागर नदियों का निर्माण किया उसके उपकारों को हमें समझना चाहिए।
जिस तरह से भगवान ने सूर्य, चन्द्र, ग्रहों की व्यवस्था की है ऐसी सुंदर व्यवस्था देख कर दिमाख काम नहीं करता। सबको हैरत में डाल दे ऐसी सुन्दर व्यवस्था किसनें निर्माण की? सुर्य या पृथ्वी का अंतर थोडा बढे या कम हो तो पृथ्वी या तो जल जाए या जमकर बर्फ बन जाए। चंद्र जरा भी पृथ्वी के नजदीक आए तो हिमालय भी समूद्र में डूब जाए यह व्यवस्था किसनें निर्माण की?।
अन्न के एक दानें में से एक हजार दाने किसने निर्माण किये? अनपढ आदिवासी भी एक रुपये का ब्याज अधिक से अधिक दो रुपये देगा लेकिन एक हजार तो न देगा..........
बरसात कौन लाता है? समूद्रके खारे पानी को मिठा करके भगवान देता है। आवश्यकता से अधिक दे दिया है। मस्तिष्क में कितनी ही बातें समा जाती है। मानव ने तो कम्प्यूटर अभी बनाया है, भगवान का बनाया हुआ यह कम्प्यूटर कैसा है? कितनी ही बातें इसमें समायी हुयी हैं, जब बटन दबाया की बात दिमाख में तैयार। ह्रदय भी कितना अफलातून (वैशिष्टयपूर्ण) है। अच्छी से अच्छी मशीन 24 घंटे सतत चलनें पर 25 वे वर्ष में खलास हो जाएगी, जबकि अपना ह्रदय 80 से 100 साल तक सतत चलता रहता है। भगवान की अपने उपर अनंत कृपा है, इसलिए उन्हे याद करना चाहिए।
जिस तरह भगवान नें हमें यह शरीर दिया वैसे ही विविधतापूर्ण सृष्टी दी और माँ-बाप का वात्सल्य दिया। पशु पक्षी में भी वात्सल्य होता है लेकिन जबतक बच्चा माँ-बाप पर आधारित है तब तक ही रहता है। परंतु मानव में ऐसा नहीं है, मानव कितना ही बडा हो जाए पर माँ के वात्सल्य में कभी कमी नहीं आएगी। तो यह माँ का वात्सल्य किसनें निर्माण किया?। भगवान के उपकारों का वर्णन हम जितना करेंगे उतना कम ही है। इसलिये परमात्मा का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिये।
मानव जीवन में तीन बात बहुत महत्व की है। स्मृति, शक्ति, और शांति। इन तीनों के शिवाय मानव जीवन शक्य नहीं है। इसीलिए सुबह मुझे प्रेम से उठाकर स्मृति दान देने वाले को मुझे नमस्कार करना ही होगा। उसी प्रकार खाना खाते समय शक्ति दान और रातको सोते समय शांति दान देने वाले उस परमेश्वर को यदि मैं मानव होकर भूल जाऊं तो मुझमें और पशू में फर्क ही क्या रह जाएगा?। इसप्रकार सुबह उठते समय, खाना खाते समय और रातको सोते समय भगवान का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिए। इन तीन बातों को दुसरे शब्दों में उत्पत्ति, स्थिति, और लय भी कह सकतें हैं। उठतें हैं तब उत्पति, खाना खायेंगे तब स्थिति और सो जायेंगे तब लय। इस कार्यक्रम को अर्थात कृतज्ञता पूर्वक स्मरण को स्वाध्याय कार्यमें ''त्रिकाल संध्या'' का नाम दिया है। ''त्रिकाल संध्या'' सूनते ही सर्व सामान्य आदमी को ऐसा लगता है कि यह सब सिर्फ ब्राम्हणों के करने का कार्यक्रम होगा लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। अपना जीवन चलाने वाले भगवान को दिन में तीन बार महत्व के समय याद करना ही ''त्रिकाल संध्या'' है। तीन समय याने उठने, खाने और रात को सोते समय।
त्रिकाल का अर्थ तीन समय और संध्या याने संधि (एक का आना दूसरेका जाना)
1) प्रात: संध्या :- सुबह उठते समय नींद जाती है और जागृति आती है यह एक संध्या
2) मध्यान संध्या :- दोपहर को भूक जाती है और तृप्ति आती है यह एक संध्या
3) सायं संध्या :- रातको जागृति जाती है और नींद आती है
इस प्रकार तीन संध्या मिल कर ''त्रिकाल संध्या'' होती है। इन तीनों समय भगवान हमारे निकट आतें हैं। वे हमें कुछ देने के लिए आते हैं। जैसे सुबह स्मृति देने के लिए, दोपहर को शक्ति देने के लिए और रात को शांति दान देने के लिए।
भगवान तो 24 घंटे हमारे साथ है ही परंतु इन तीनो समय में भगवान हमारे उपर विशेष ध्यान देते हैं। जैसे स्कूल में गुरुजी पहिले पाठ में हजेरी लेते समय लडकों का ध्यान गुरुजी के पास होना जरुरी होता है नहीं तो गैर हजेरी गिरने का डर होता है। उसी प्रकार हमें भी तीन महत्व के समय परमात्मा का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना चाहिए।
जब रात को मैं सोता हूँ तो निंद से मुझे कौन उठाता है? इसका मैने कभी विचार ही नहीं किया। रातको बहुत से लोग सो जाते हैं तो सुबह उठते ही नहीं वर्षोंतक बहुतसे बिमार (कोमामें) सोते हुए अस्तपताल में पडे है। क्या बिगड गया है यह डॉक्टर को भी पता नहीं लगता। कोई उठाता है। ऐसा मालूम होता है जैसे किसीने जगाया हो। और केवल जगाया ही नहीं तो मेरे दिमाख में फिर से स्मृति भरी जो सोते समय सब विस्मृत हो गया था। मैं सोया था तब मुझे मालूम न था कि मैं कौन हूँ, मेरा नाम क्या है?, मेरा गांव कौनसा है?, मैं अमीर हूँ या गरीब हुँ, मै स्त्री हूँ या पुरुष, यह सब मैं भूल गया लेकिन सुबह उठते ही स्मृति वापस आती है। भगवान का कितना प्रेम है जो स्मृति मेरी ही मुझे देता है। यदि मेरी स्मृति किसी और को दे दें तो? कितनी गडबड हो जाती।
भगवान 24 चोबीस घंटे मेरे साथ है इसका सतत ध्यान रहे इसलिए त्रिकाल संध्या करनी चाहिए। ईश्वर मेरे साथ है, मेरा ख्याल रखता है, और मै उस करुणामय भगवान के प्रति कृतज्ञ हूँ। इस भाव से मानव विकास की सीढी पर धीरे धीरे आगे बढेगा इसमें परम पूज्य ''दादा'' (परम पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवलेजी) को पूर्ण विश्वास है।
परमेश्वरसे जीवन मिला है, सदा संगमें रहता तेरे ।
सुबह प्रेम से उठाते, और स्मृतिदान देते ।।२।।
सुबह उठते ही पहले, कर दर्शन तू करले ।
भूमिको वन्दन करके, गोविन्द को याद करले ।।३।।
परमेश्वर नें हमें देह दिया है, हमारे शरीरमें खून वही बनाता है और देह का पोषण करने के लिए अन्न भी वही निर्माण करता है। शरीर थक जाता है तब नया उत्साह निर्माण करने के लिए भगवान हमें प्रेम से सूलाता है। सो जाने पर हमारा ह्रदय और श्वासोश्वास वही सुचारु रुप से चलाता है। और प्रात: फिर से ध्यान रखकर वही उठाता है। इस प्रकार जो शक्ति लालटेन में रहकर तेल की तरह न दिखाइ देते हुए हमें स्मृति, शक्ति, और शांति देकर हमारा जीवन टिकाये रखती है। उस शक्ति का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिए।
शरीर द्वारा होने वाली प्रत्येक कृति में पहले विचार आता है और बादमें कृति आती है। लेकिन रोज सुबह उठते समय आंखे खोलने की कृति पहले होती है और उसके बाद विचारोंका चक्र शुरु होता है। तो फिर आंखे खोलने वाला कौन है? पूरे दिन की थकान के बाद हमारी स्मृति नहीं रहती हमें हमारे शरीर का ज्ञान भी नहीं होता है। फिर भी नींद में अपने शरीर की क्रीया अविरत चालू रहती है। भगवान मुझे सुबह जगायेगा ही यह विश्वास होता है। इसिलीए तो हम निश्चित सो जाते हैं। आंखे खुलने के बाद दिन रात की स्मृति देने वाला कौन है?। महाराष्ट्र के संतों के शब्दों में..............
डोळयानी बघतो, ध्वनी परिसतो, कानी पदी चालतो ।
जिव्हेने रस चाखतो, मधुर ही वाचे आम्ही बोलतो ॥
हातानी बहुसाल काम करितो, विश्रांति ही घ्यावया ।
घेतो झोप सुखे फिरुनी उठतो, ही ईश्वराची दया ॥
इस दया शब्द में परायापन नहीं है अपितु आत्मियता है। भगवान की इस आत्मियता का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिए। कृतज्ञता यह बडे से बडा धर्म है। बाकी सब पापों को प्रायश्चित है परंतु हमारे धर्म शास्त्र के अनुसार कृतघ्नी को प्रायश्चित नहीं है।
ब्रम्हघ्ने च सुरापे च चोरे भग्नव्रते तथा ।
निष्कृतिर्विहिता लोके कृतघ्ने नास्ति निस्कृति: ॥
कृतघ्नी मानव को निष्कृति नहीं है इसीलिए भगवान के पास जाने के लिए प्रथम कृतज्ञता होनी चाहिए। इसीलिए सुबह उठने के साथ प्रथम भगवान को याद करना चाहिए। और निम्न लिखीत श्लोक बोलते हुए हथेली के दर्शन करना चाहिए।
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमूले सरस्वती ।
करमध्ये तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥
हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, मूल में सरस्वती और मध्य भागमें गोविंद है, इसलिए सुबह हाथ का दर्शन करना चाहिए। मंदिर की सुन्दर कल्पना हमारे हाथ के लिए कि गयी है। जिस तरह मंदिर में देवताओं की मूर्ति होती है, उसी तरह हमारे हाथ के मध्य भाग में भी देवताओं का वास्तव्य है। धर्म शास्त्रनें भी हमारे हाथ के मध्य भाग का महत्व बताया है। हमारे हाथ में देवतीर्थ, ऋषीतीर्थ, पिर्ततीर्थ और विष्णुतीर्थ ऐसे महान पंचतीर्थ है। कनिष्ठीका और अनामिका अंगुली के मूल भाग में आर्षतीर्थ है। अंगुष्ठ और तर्जनीके मध्य भागमें पितृतीर्थ अंगुष्ठ के मूल भागमें देवतीर्थ हैं। यह भाग सब तीर्थों में मुख्य माना गया है। इसलिए कोई भी कार्य के प्रारंभमें पहले आचमन करनें की प्रथा है। हथेली में पानी लेकर आचमन करने से पवित्रता होती है व कर्ता का मनोबल पुष्ट होता है और शुध्द पवित्र मनसे उसके कार्य का प्ररंभ होता है। सब तीर्थों की जगह देवताओं का वास्तव्य रहने से हथेली का दर्शन करने से देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। उपरोक्त श्लोक हम यदि समझकर बोलेंगे तो हमारा मानव जीवन प्रेरणा दायक होगा। लक्ष्मी, विद्या और भगवान को प्राप्त करना यह मानव के इच्छा की बात है। ऐसा उत्साही अर्थ इस श्लोक में छुपा हुआ है। संसार की कोई भी वस्तु पुरुषार्थ के शिवाय प्राप्त नहीं होती। मानव में प्रयत्न रहित व पुरुषार्थ शुन्य लालसा को गीताकार नें क्लीब अर्थात नपुंसक की सज्ञा दी है ।
सुबह उठते ही हाथके दर्शन कर मानव स्वत: के पुरुषार्थ को आहवान देना चाहिए। हाथमें सब कुछ समाया हुआ है, हाथके दर्शन याने पुरुषार्थ का चिंतन, ध्येय की तीव्र कामना, ध्येय की दिशा में प्रयाण। बिना श्रम के मिला हुआ पैसा मनुष्य को पाप की ओर ले जाता है। उसी प्रकार बिना श्रम के मिली हुयी प्रसिद्धी भी बहुत बार पतन का कारण बनती है। साधना विरहित मिली हुयी सिध्दी भी अंतमें महंगी पडती है। फुकट मिलने की मनोवृत्ती मानव को मनुष्यतासे बहुत दूर ले जाती है। इसलिए मानव को सतत परिश्रमका गौरव बढाना चाहिए।
जिस तरह मंदिरके उपर कळश होता है उसी प्रकार हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी का वास है, लक्ष्मी देदीप्यमान और तेजस्वी और तेज रुप है। कर्म करते हुए ही मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त करनी होती है। कोई भी वस्तु प्राप्त करनी हो तो हाथका उपयोग करना पडता है, अपना हाथ पुरुषार्थ का प्रतीक है। काले सिर वाला आदमी जो सोचेगा वह कर सकता है। गुजराथी में एक कहावत है, ''माणस धारे तो वाघ पण मारे'' मनुष्य को निश्चय करना चाहिए, आदमी की कमजोरी यही है की वह ''अशक्य'' समझकर जीवन विकास की अधिकतर बातें छोड देता है। नेपोलियन के शब्द कोषमें ''अशक्य'' शब्द ही नहीं था। हथेली का दर्शन मनुष्य में आत्मविश्वास निर्माण करता है। उसके न्यूनगंड का नाश हो जाता है। दूसरा कोई आएगा और मेरा उध्दार करेगा इस विचार के बदले हथेली का दर्शन करने वाला भगवान द्वारा गीता में दिया हुआ उपदेश याद करता है। उध्दरेदात्मनात्मानम् नात्मानमवसादयेत्....दुनियां में कोई भी कार्य मेरे लिए अशक्य नहीं है ऐसा आत्मविश्वास आदमी अनुभवता है। पुरुषार्थ से सभी संभव है, इस विश्वास से आदमी कठीन से कठीन काम करने को तैयार हो जाता है। ''अपना हाथ जगन्नाथ'' यह भाव कर दर्शन करने वाले के मनमें जागृत होता है।
इसी प्रकार सुबह उठने के साथ भगवान को कृतज्ञता पूर्वक याद करके हाथ का दर्शन करते हुए श्लोक बोलनेवाला निश्चय करता है कि मैं मेरे पुरुषार्थ से लक्ष्मी सरस्वती और भगवान को प्राप्त करुंगा। हाथ का दर्शन पुरुषार्थ का सूचक है। ''काम करते जा भगवान को पूकारते जा मदद तैयार है''। आज हम लोगों में पुरुषार्थ की भावना ही समाप्त हो गयी है। यदि हमें घर बैठे ही वेतन मिले तो काम पर जाने की हमारी ईच्छा नहीं होंगी आज सभी को साहब बनकर घुमने की ईच्छा है।
कराग्रे वसते स्पूनं, करमूले ही बस्कीटं
कर मध्ये चहा पात्रं, प्रभाते कर दर्शनं
आज समाज में यही दृश्य दिखाई देता है। मानव भोगलंपट बन गया है इसलिए कर दर्शन की आवश्यकता मानव समाज को आवश्यक नहीं लगती, ''न ऋते श्रांतस्य सख्याय देवा:'' (ऋगवेद)। श्रम करके जबतक हम थकते नहीं तब तक भगवान भी हमारी मदद नहीं करते उपरोक्त श्रुति वचन मानव को पुरुषार्थ की प्रेरणा देता है। बिना कुछ कर्म किए सिर्फ बैठे बैठे खुदको भक्तों की गणना करने वाले कितने ही आलसी लोग इस संसार का पौरुषत्व नष्ट करनें में जाने अनजाने स्वत: का भाग देते हैं। ईशकृपा से अवश्य सिध्दी मिलती है, परंतु ईश कृपा प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है।
दृष्टांत: महात्मा कनफ्युसियश एक आश्रम चलाते थे। उनके आश्रम में बहुतसे विद्यार्थी थे, आश्रम का एसा रिवाज था की विद्यार्थी जब आश्रम छोड के जाता तो गुरु एक अंतीम प्रश्न पूछता और उसका समाधानकारक उत्तर पाता था। एक बार एक विद्यार्थी ने गुरु को चक्कर में लाने का मन में निश्चय किया। उसने एक पक्षीको अपने दोनो हाथमें पकडकर गुरु के पास जाकर प्रश्न किया। गुरुदेव मेरे हाथमें जो पक्षी है वह जींदा है या मरा हुआ? गुरु समझ गये कि शिष्य हुशार है मुझे झूठा साबीत करने को उतारु है, यदि मैं कहूंगा कि पक्षी मरा हुआ है तो पक्षी को छोड देगा, यदि मैं कहूंगा कि पक्षी जिंदा है तो वह पक्षी को अपनें हाथों से दबाकर मार देगा परंतु गुरु आखीर गुरु है उन्होनें बहुत ही मार्मीक उत्तर दिया : “The answer to that question lies in your hand.” पक्षी जिंदा है या मरा हुआ उसका जबाब तेरे हाथ में है। तू चाहेगा तो वह जिंदा है और यदि तू चाहेगा तो वह मरा हुआ है। कन्फ्युसियस का यह उत्तर मानवमात्र के लिए चिरंतन प्रेरणा-मंत्र के समान है। हमारे मनमें उठनेवाले अनंत विकल्पों को संकल्प में बदलने की अमोघ शक्ति इस मंत्रमें है। हमारे जीवनमें खडे होने वाले सभी प्रश्नों के उत्तर हमारे हाथमें है।
हाथ के मूल में सरस्वती याने विद्या है । एकलव्य की तरह मुझे चाहिए इतनी विद्या मैं प्राप्त करूंगा ही, मेरे पास सरस्वती है अत: मैं अपना जीवन भी अच्छा बना सकूंगा, सौंदर्ययुक्त बनाऊँगा, ऐसा आत्मविश्वास निर्माण होता है। जीवन में संस्कारयुक्त रस उत्पन्न करे, वही सरस्वती है । करदर्शन करते समय व्यक्ति को निश्चय करना चाहिए कि मेरा जीवन भोग-विलास में बिगाडने के लिए नहीं है, अपितु तपश्चर्यामय जीवन जीकर विद्या संपादन करने के लिए है । विद्याशून्य आदमी साक्षात पशु के समान है । इसलिए रोज सुबह माता सरस्वती को याद करके ज्यादा से ज्यादा संस्कारी जीवन जीने का दृढ निश्चय करना है और उसके लिए प्रभु के पास से ज्यादा तपश्चर्यामय जीवन जीने की शक्ति मांगनी है । माँ सरस्वती का स्मरण आदमी को विकास के पथ का विचार करने के लिए और आत्मविश्वास भरे दृढ कदम उठाने के लिए प्रेरित करता है । ऐसा निश्चय करके पुरूषार्थ करनेवाले को सहायता करने के लिए योगेश्वर सदा तैयार है ।
हाथ के मधय भाग में गोविन्द का वास है । लक्ष्मी अर्थात वित्त और सरस्वती अर्थात विद्या । ये दोनों प्राप्त होते ही आदमी के मन में गर्व उत्पन्न होता है, वह उन्मत्त बन जाता है । इसलिए दोनों के बीच में गोविन्द को बिठाया है । जीवन में वित्त और विद्या दोनों की जरूरत है । एक की प्राप्ति होने से भी मनुष्य में अहंकार निर्माण होता है तो फिर दोनों की प्राप्ति होने के बाद तो पूछना हि क्या? इसलिए लक्ष्मी और सरस्वती के बीच में गोविन्द को बिठाया है । "करमध्ये तु गोविन्द" दोनों की लगाम गोविन्द के हाथ में है । विद्या के पास दृष्टि है तो लक्ष्मी के पास शक्ति है । दृष्टि और शक्ति का मिलन करने, दोनों को साथ रखकर सन्मार्ग के तरफ मोडने के लिए बीच में गेविन्द चाहिए ही । भगवान के अस्तित्व से जागृत मनुष्य को लक्ष्मी या विद्या का मद नहीं रहेगा । रावण के जीवन में लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही थी, लेकिन गोविन्द नहीं था, इसलिए उसका जीवन दैवी न बनकर आसुरी बन गया ।
जिस प्रकार हमारी हाथ की अंगुलियां समान नहीं है उसी प्रकार समाज में सरस्वती और लक्ष्मी भी समान नहीं है, लेकिन सभी उंगलियों को मोडकर हाथ के मध्य भाग में लायेंगे तो सभी सीधी हो जाती है । 'कर मध्ये तु गोविन्द:' गोविन्द के पास आने से सभी समान बन गयी, कोई छोटि बडी नही रही, उसी प्रकार समाज में रहने वाली सरस्वती और लक्ष्मी को गोविन्द के साथ जोड देंगे तो असमानता नहीं रहेगी । भगवान के दरबार में गरीब-श्रीमंत का भेद नहीं होता है । सुबह गोविन्द का दर्शन करके श्रीमंत और विद्वान नम्र बनते हैं और जिसके पास लक्ष्मी और सरस्वती कम है वे लोग 'भगवान ही मेरे पास है' ऐसा विचार करते हुए अस्मितायुक्त जीवन जीने का निश्चय कर लेते हैं । प्रत्येक मनुष्य हाथ में प्रभु का वास मान्य करें और हाथ से जीवन में एक ऐसा कर्म करने का विचार करें जो प्रभु को अच्छा लगे, जिससे जीवन विकास हो, संस्कृति की अस्मिता निर्माण हो, समाज के प्रति सम भाव की प्रेरणा मिले, तो ऐसा करते करते जीवन में आगे बढते हुए एक दिन ऐसा आयेगा कि असत् कर्म होंगे ही नहीं । मेरे हाथ में प्रभु का वास है इसलिए मैं प्रभु को अच्छा न लगनेवाला एक भी काम नहीं करूंगा, यह संकल्प अपने जीवन का ध्येय बनना चाहिए ।
कर्तृत्ववान पुरूष करदर्शन करते हुए भगीरथ कार्य को करने का निश्चय करता है । प्रभु के ऊपर अटूट विश्वास, पुरूषार्थ और पराक्रम साथ में मिल जायेंगे तो कोई भी असंभव नहीं रह जायेगा । रघुराजा ने अपने बाहुबल से संपत्ति प्राप्त करके कौत्स को दी । एकलव्य ने वन में जाकर तप करते हुए स्वप्रयत्न से विद्या प्राप्त की । करदर्शन से मनुष्य में ईशश्रद्धा और आत्मश्रद्धा दृढ होती है । ऐसा आदमी ही सिद्धी के शिखर तक पहुँचकर दम लेता है ।
सुबह उठने के साथ करदर्शन करते हुए प्रभु को नमस्कार करके पुरुषार्थ का दृढ संकल्प करते हुए पृथ्वी के ऊपर पैर रखने से पहले कहना है -
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥
समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनवाली भगवान विष्णु की पत्नी, हे पृथ्वीदेवी ! मैं तुझे नमस्कार करता हूं । मेरे पैर का तुझे स्पर्श होनेवाला है, इसलिए तू मुझे क्षमा कर । यह श्लोक बोलते हुए भूमि माता को वन्दन करना है, अथर्ववेद में कहा है :-
माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्याः ।
नमो माता पृथिव्यै नमो माता पृथिव्यै ।।
पृथ्वी प्राणिमात्रा की माता है । वह जड और चेतन सभी को गोद में धारण करती है । अपना प्रेमपियुष पिलाकर यह वसुंधरा संपूर्ण जगत का पोषण करती है । जिसप्रकार मनुष्य देह वस्त्रों से आच्छादित होता है, उसीप्रकार धरती माता का तीन चतुर्थाश भाग समुद्र से आच्छादित है । समुद्र उसका वस्त्र है । इस वस्त्र में धरतीमाता अतिशय शोभायमान लगती है । सागर से निकलने वाले मोती और रत्नों का लोभ न रखते हुए पृथ्वीमाता अपने सभी पुत्रों को (मनुष्यको) दे देती है । पृथ्वी के वक्षस्थल पर बसे पर्वत उसके रत्न है । मातृवात्सल्य से यह वसुंधरा अपने पुत्रों का पोषण करती है, पर्वतों में अनेक प्रकार की पौष्टिक औषधियाँ और वनस्पति होती हैं । पर्वतों से बहनेवाला पानी इन वनस्पतियों के गुणों से युक्त होता है । माता के स्तन से दूध पीकर बालक पोषण पाता है, उसीप्रकार पृथ्वीमाता के पर्वतरूपी स्तनों से बहनेवालले पेय से (पानी से) प्रत्येक प्राणी पोषण पाता है, मनुष्य को संतुष्ट करनेवाले सभी उपभोग पृथ्वी से ही निर्माण होते हैं ।
पृथ्वीमाता की गोद में हम जन्म लेते हैं, पोषण पाते हैं, और अंत में देह विलय भी उसी की गोद में करते हैं । पृथ्वी सिर्फ जमीन, मिट्टी या पत्थर नहीं है । हम पृथ्वी के तरफ भावनात्मक दृष्टि से देखेंगे तभी हम इस श्लोक को समझ सकते हैं । जिस माँ ने मेरा पालन पोषण किया, उसीको क्या मैं पैर से स्पर्श करूंगा ? क्या मैं कृतघ्न हूँ ? हमारी भारतीय संस्कृती कृतज्ञतापरायण है, हम पृथ्वी के अच्छे भोले बालक हैं । बालक मां को लात मारता है, लेकिन जब उसका मनुष्यत्व खिल उठता है तब वह माँ को देवी के समान समझते हुए उसका वन्दन करता है । इस भावना से पृथ्वी को नमस्कार करना है ।
वैदिक काल से हम पृथ्वी को माता कहकर पूजते हैं, लेकिन आज हम पश्चिम के रंग में रंग गये हैं, इसलिए राष्ट्रपति जैसे शब्द हमें चुभते नहीं है । वन्दे मातरम् बोलते हुए प्राणों की आहुति देनेवाले भारतीय आज राष्ट्रपति का अनोखा गौरव करते हैं । क्या यह हमारी संस्कृति के अनुरूप है ? पृथ्वी अपनी माता है । मातृभूमि, जन्मभूमि हमारी राष्ट्रभूमि में हमारा पालन पोषण हुआ है, उस भूमि के हम पति नहीं बालक हैं । हमारी पृथ्वीमाता का स्वामी भगवान ही बन सकता है, जो समस्त प्राणिसृष्टि का पिता है । इसी भावना से पृथ्वी को विष्णुपत्नी कहा गया है ।
पृथ्वी अनेक रस और सुगन्ध से अपने बालकों को पुष्टि देती है । धन, धान्य और फलफूल से लदी हुई धरतीमाता हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए । अगाध सह्रदयता, निर्मलता, दयाशीलता और परकार्यतत्परता, यह पृथ्वी से सीखकर जीवन में उतारने जैसे गुण हैं । अपने ह्रदय में स्वार्थ निर्माण होगा तो सह्रदयता नष्ट हो जायगी । आत्मलक्षी जीवनवाले व्यक्ति के ह्रदय में सह्रदयता प्रवाहित नहीं हो सकती है, पृथ्वी के पास अगाध सह्रदयता है, इसलिए अपने पुत्रों को कुछ न कुछ बनना चाहिए, ऐसा उसे लगता है । वह प्रियदत्ता है । धन धान्य, फूल; पृथ्वी हमें क्या नहीं देती ! पृथ्वी न हो तो जीवन ही नहीं । इसीलिए अपनी भावप्रधान संस्कृति ने भूमिपूजन का विधान रखा है । घर बनाने से पहले भूमि का पूजन करने में कृतज्ञता समाई हुई है । पृथ्वी के पास ह्रदयगम्य निर्मलता है । मलिन को निर्मल बनाना पृथ्वी का गुण है । हमें अपने ह्रदय को निर्मल करना है और उसके लिए प्रभु भक्ति करनी है । शिवो भूत्वा शिवम् यजेत । कृष्णो भूत्वा कृष्णं यजेत । रामो भूत्वा रामं यजेत । इस प्रकार उपासना करनी चाहिए । मनुष्य का जीवन निर्मल बनना चाहिए । जब निर्मल दृष्टिकोण होगा तभी वासना निर्मल होगी । जीवन में सह्रदयता और निर्मलता आयेगी तो क्षुद्र वासना रहेगी ही नहीं ।
पृथ्वी के पास दयाशीलता है, वह 'सर्वसहा' है । हम जमीन खोदते हैं, सुरंग लगाते हैं, यह सभी वह सहन करती है । कितने ही लोग सह्रदय होते हैं, लेकिन दयाशील नहीं होते । सभी को सह्रदयता से देखो ऐसा पृथ्वी कहती है, इसी प्रकार उसके पास परकार्यतत्परता है । आज हमारे अंदर सह्रदयता नहीं रही, हमें तो हर जगह स्वार्थ ही दिखाई देता है । झांसी की रानी देश के लिए लडी, क्या उसके ह्रदय में राज्यलालसा थी? स्वार्थी नजर रखकर विचार करनेवालों को झांसी की रानी को देश के लिए दी हुयी कुर्बानी की कल्पना भी नहीं आयेगी । क्या बनने के लिए शिवाजी महाराज लडे थे? जिसके जीवन में उपरोक्त गुण विकसित नहीं हुए, जिसे सांस्कृतिक मूल्यों की समझ ही नहीं है, ऐसे स्वार्थांध बने हुए मानव को महापुरूषों के बलिदान कैसे समझ में आयेंगे? पृथ्वी की परकार्यतत्परता समझने के लिए सह्रदयता और परकार्यरत ह्रदय तैयार करना होगा । पृथ्वी की सुगंध अपने जीवन में लानी हो तो सतत घिस जाना पडेगा । निस्वार्थ भाव से जो घिस जाते हैं वही पवित्र होते हैं ।
देशकी मिट्टी का प्रेम भावनात्मकता व राष्ट्रीयता निर्माण करता है । अवतारों ने जिस भूमि पर विहार किया, जहाँ ऋषियों ने तपश्चर्या द्वारा मानव जीवन उन्नत करने के प्रयोग किये, आचार्यों ने जिसके ऊपर पसीने का अभिषेक किया, भक्तों ने जहाँ भावगीतों का अनाह्रत भाव गुंजाया, राष्ट्रवीरों ने जिसके लिए शहीद होना स्वीकारा; ऐसी पृथ्वीमाता का दर्शन मानव में भाव, प्रेम संवर्धन करनेवाला होता है ।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
(वसुदेव के पुत्र, राजा कंस और चाणूर मल्ल को मारनेवाले, देवकीमाता को अति आनंद देनेवाले जगद्गुरू श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।)
अखिल विश्व के गुरू श्रीकृष्ण को अभिवादन करनेवाला यह श्लोक बहुत ही अर्थपूर्ण है । गर्गसंहिता में संपूर्ण 'कृष्णाष्टक' स्तोत्र में श्रीकृष्ण के जगद्गुरु होने के नाते उनके स्वरूप का यथातथ्य वर्णन किया गया है । इस स्तोत्र का पहला श्लोक रोज प्रार्थना के रूप में उपयोग में लाना चाहिए ।
वसुदेव का पुत्र, देवकीमाता को परम आनंद देनेवाला श्रीकृष्ण ऐसा कहते समय श्रीकृष्ण अपने कौटुंबिक जीवन का प्रतिनिधि है, ऐसा महसूस होता है । श्रीकृष्ण के वसुदेव का पुत्र होने का कारण भी, उनका जन्म पितृगौरव को बढावा देता है। श्रीकृष्ण ने पितृगौरव को सच्चे अर्थ में प्रभावित किया है । जो पुत्र केवल पिता का नाम लगाने तक ही संबंध रखता है, ऐसे पुत्र के बारे में पिता को कैसा गौरव लगेगा? कुछ विशेष कर्तृत्व करने की जिसके बाहों में शक्ति है, ऐसे पुत्र के बारे में पिता को जरूर गौरव का अनुभव हो सकता है। सच्चे अर्थ में ऐसा ही पुत्र 'पितृदेवो भव' का पालन करके पितृभक्ति या पितृसेवा कर सकता है। श्रीकृष्ण ने कंस, चाणूर दैसे मल्लों को मार करके महान पुरुषार्थ अर्जित किया है। पुत्र के पुरुषार्थ से पिता का मस्तिस्क हमेशा उन्नत रहता है।
इसके उपरांत, माता को जिस पुत्र के जन्म देने में धन्यका-कृतकृत्यता लगेगी, वही सच्ची संतान कहा जायगा । इसीलिए श्रीकृष्ण को 'देवकी परमानन्दम्' विशेषण प्रदान किया गया है। जो जन्मसे ही 'कुलं पवित्रं जननी कृतार्था' हो जाते हों, वही सुपुत्र है; ऐसे ही श्रीकृष्ण थे। प्रातःकाल 'कृष्णो भूत्वा कृष्णं यजेत्' से यदि कृष्ण को अभिवादन करेंगे तो अपने जीवन में भी पितृगौरव, पुरुषार्थ, मातृप्रेम और नम्रता लाने की प्रेरणा आपको मिल सकती है।
भोजन यह यज्ञ कर्म है, उदरभरण नहीं है ये ।
प्रभु अर्पण करके, प्रसाद करके पाले ।।४।।
सुबह उठते ही करदर्शन और भूमिदर्शन करने के बाद मानव अस्मितायुक्त भावमय जीवन जीने के लिए तत्पर होता है। कार्यरत होने के लिए स्मृति के साथ शक्ति की भी जरूरत होती है। स्मृतिदान देनेवाला परमपिता शक्तिदान देने से कैसे चुकेगा? दोपहर के भोजन के समय उस शक्तिदाता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हमें नीचे लिखे हुए चार श्लोक बोलते हुए भगवान का स्मरण करना चाहिए :-
1) यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: । भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥
2) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पनम् ॥
3) अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नम् चर्तुविधम् ॥
4) ओऽम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ओऽम् शांति: शांति: शांति:
१) यज्ञशिष्ट याने यज्ञ से देवों को समर्पण करके बाकी बचा हुआ शेष उपभोगनेवाला सज्जन सभी पापों से मुक्त होता है, जो केवल अपने लिए ही स्वार्थ सिद्धि से अन्न पकाता है वह पाप का अन्न भक्षण करता है।
२) हे अर्जुन, तू जो जो कर्म करेगा, जो दो सेवन, जो जो हवन करेगा, जो जो देगा अथवा जो जो तप याने व्रताचरण करेगा वह सभी मुझे (परमेश्वर को) अर्पण कर।
३) मैं (परमात्मा) अग्निरुप और सभी प्राणियों के आश्रय से प्राण, अपान, वगैरे वायुयों से युक्त होकर चतुर्विध (खाद्य, पेय, लेह्य और चौष्य) अन्न पचाता हूँ।
४) (हे परमात्मन्) हम दोनों का (गुरू-शिष्य का) बराबर रक्षण कर, हम दोनों ही समान बल प्राप्त करें, हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजस्वी रहे। हम दोनों में परस्पर द्वेष न हो। हमारे सभी संतापों की निवृत्ती होने दे।
हमें भगवान की कृपा से अन्न मिलता है। पकानेवाला सा उगानेवाला भले कोई भी हो, तो भी उसके पीछे भगवान की ही कृपा होती है। हम कहते हैं कि किसान बीज बोता है और तब अन्न मिलता है, लेकिन प्रथम बीज कहाँ से आया? खेत में चार दाने बोने के बाद चार हजार दाने बनाने में किसान की कौन सी शक्ति काम में आयी? जो जीव को जन्म देता है वही उसके पोषण की चिंता करता है। जिसने दांत दिये उसी ने दाने दिये। अरे! उस करूणानिधि ने अपने शरीर की रचना भी कैसे की है ! ज्वार बाजरे की रोटी खायें या गेहूँ की रोटी खायें, सभी का खून तो लाल ही बनता है। खाने के बाद अन्न किस प्रकार पचता है, इसकी चिन्ता कौन करता है? अन्न रस खून में मिलकर सतत शक्ति प्रदान करता है, इतना ही हम जानते हैं। बडे बडे वैज्ञानिक भी विविध पदार्थों से एक ही प्रकार रसायन नहीं बना पाते हैं । इसीलिए इस अदृश्य शक्ति को, जिसने हमारे लिए अन्न उगाया और हमारा खाया हुआ अन्न पचाकर लाल खून बनाया है, उसे खाते समय कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार करना हमारी संस्कृति का आदेश है, खाना खाते समय भगवान को याद करना ही चाहिए।
भोजन सिर्फ उदरभरण नहीं है वह एक यज्ञ कर्म है। सभी यज्ञों का स्वामी और भोक्ता भगवान ही है। 'अहं ही सर्व यज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।' यज्ञ के कारण भगवान संतुष्ट तथा प्रसन्न होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ को व्यापक रूप दिया, अकर्मण्य और निरुत्साही बने हुए जगत को प्रेरणा देकर आनंदी और उत्साही बनाया। भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन को यज्ञ माना और घोषणा की कि 'यत्करेषि...। उन्होने कहा : 'हे अर्जुन ! तू अपने लिए जो जो कर्म करता है, अन्नपान आदि व्यवहार करता है अथवा प्रसंगानुरूप हवन, दान, जप, तप, आदि क्रियायें करता है वह सब मुझे अर्पण कर। यह भी मेरा पूजन करने की एक उत्कृष्ट रीत है।' इसीलिए भोजन के समय ईश्वर का स्मरण करना चाहिए।
मनुष्य अन्न खाता है, लेकिन भूख लगना या अन्न पचाना उसके हाथ में नहीं है। परमेश्वर रूप वैश्वानर प्रज्वलित होगा तभी मनुष्य अन्न खा सकता है। यह अग्नि शरीर में रहते हुए भी उसे जलाता नहीं है बल्कि उसकी कमी को पूरा करता है, ईश्वर के शिवाय यह चमत्कार और कौन कर सकता है? हम रोटि खायें, श्रीखंड खायें, संतरे या मुसंबी का रस पीयें या गन्ना चूसें - विविध प्रकार के अन्न का पाचन होने के बाद अन्न रस तैयार होता है और उसमें से लाल रंग का खून तैयार होता है, कौनसी प्रयोगशाला में ऐसा हो सकता है? आज तो विज्ञान का युग है, किसी वैज्ञानिक की शक्ति है कि विविध पदार्थों की रासायनिक क्रिया करके परिणाम एक ही (लाल खून) बना सके ?
जिस भगवान ने भूख लगाकर मानव के जीवन में रस भरा स्वाद लेने के लिए जीभ बनायी है वही भगवान गीता में भोजन को यज्ञ मानने के लिए कह रहा है। भोजन बनानेवाले का विचार शुद्ध होना चाहिए, भोजन बनाते समय 'वैश्वानर-भगवान को खिलाने का पवित्र कार्य कर रहा हूँ' ऐसे भाव के साथ रसोई बनाई जाय तो रसोई बनाना भी एक यज्ञीय कार्य बन जायेगा ।
एक कहावत है 'जैसा अन्न वैसा डकार।' यह कहावत यही दिखाती है कि जो अन्न हम खाते हैं उसका वैचारिक असर सूक्ष्मरूप से हमारे ऊपर होता है। चोर के यहाँ भोजन करने के बाद साधु को भी चोरी करने की इच्छा हो गयी, यह कहानी हमें बताती है कि अन्न की पवित्रता के ऊपर विचारों के पावित्र्य का आधार है।
खाना खाते समय भोजन करनेवाला यदि विचार करें कि 'मैं अपने अंदर रहनेवाले वैश्वानर को शांत करने के लिए भोजन करता हूँ' इस शरीर से मुझे सत्कर्म करने हैं, इसलिए मैं इसकी शक्ति पूरी कर रहा हूँ, भोजन करते समय ऐसी उच्च भावना रखकर कृतज्ञ भाव से प्रेमपूर्वक प्रभु को याद करते हुए ऊपर के श्लोक बोलने से मनुष्य का मनुष्यत्व खिल उठता है और भोजन का पावित्र्य बढ जाता है। भोजन का महत्व भी अपने जीवन के अन्य कार्यों के समान ही महत्वपूर्ण है। सृष्टि चलानेवाली शक्ति मेरे अंदर बैठी है, इसलिए भोजन करना एक पवित्र क्रिया है। भोजन करना यानी शरीररूपी मंदिर में विराजमान शक्ति को नैवेद्य चढाना। शुद्ध आसन, शुद्ध बरतन, शुद्ध आचार और विचार रखकर भोजन करने से वह यज्ञ हो जाता है। प्रसन्न चित्त से भोजन करने से शरीर और मन दोनों ही पुष्ट होते हैं। 'अन्न ब्रम्ह' का अर्थ ही यह है कि हम जो खाते हैं उससे अन्नरस तैयार होता है और उससे अपना मन विकसित होता है। प्रसन्नता से ग्रहण किये अन्न का परिणाम अपने खून पर ही होता है और वह एक महिने तक रहता है। प्रफुल्लित रहकर भोजन करेंगे, प्रसन्नतापूर्वक भोजन करेंगे, प्रभु को याद करते हुए भोजन करेंगे तो भोजन भी प्रसाद बन जायेगा ।
शयन करने से पहले, प्रभुका स्मरण तू करले ।
भूलोंको याद करके, प्रभुसे क्षमा तू मांग ले ।।५।।
दिनभर कार्यरत रहा मानव रातको शांति चाहता है। भोजन से हमें शक्ति मिलती है और निद्रा से शांति, स्मृतिदान, शक्तिदान और अंत में शांतिदान देकर भगवान ने अपने बालक के ऊपर वात्सल्य का प्रवाह बरसाया है। निद्रा भगवान का वरदान है। निद्रा को हम देवी कहते हैं। गहरी नींद शरीर की शक्ति बढाती है। नींद से उठने के बाद उत्साह मालूम होना चाहिए, लेकिन सर्वसामान्य लोगों के मुँह से हम सुनते हैं के उठने के साथ थकान मालूम होती है, चक्कर आता है। रातभर निद्रा से शांति नहीं मिली इसीका यह परिणाम है। शरीर सो गया लेकिन मन शांत न रह सका। सच्ची निद्रा आदमी को शारीरिक और मानसिक उत्साह देती है, शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ होते हों तो आदमी की वृत्ति सुबह प्रफुल्लित बनेगी, ऐसी स्वस्थ और स्फूर्तिप्रद नींद को लाने का उपाय हमारे ऋषियों ने दिखाया है- मन ईश्वराधीन करके सोना चाहिए। सोते समय व्यक्ति को चिंता की गठरी दूर रखनी चाहिए तभी मन ईश्वराधीन होगा। खूब परिश्रम करने के बाद छोटा बालक मां के गोद में आता है, मां का प्रेममय हाथ उसके शरीर पर घुमते ही उसकी आँखें बंद होती है और वह निश्चिंत होकर सो जाता है। ऐसा बाल सहज मन बनाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए| अपनी मां यानी ईश्वर ! रात को सोने के पहले शरीर स्वच्छ करते हुए व्यवस्थित बिस्तरे में बैठकर सोने ले पहले नीचे के श्लोक बोलते हुए मन ईश्वरार्पण करना चाहिए। :-
1) कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: ॥
2) करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम्
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो
3) त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव,
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
वसुदेवपुत्र भगवान कृष्ण को, सभी दुःखों को दूर करनेवाले भगवान को, शरणागतों के क्लेश दूर करनेवाले गोविन्द को मेरा प्रणाम।
हे शंकर! मेरे हाथों, पैरों, वाणी, शरीर के कर्म व कान, आँख, या मन से जाने अनजाने जो कोई अपराध हुए हैं उन्हें क्षमा कर । हे करूणासागर श्री शम्भो ! तेरा जयजयकार हो।
"हे देवाधिदेव ! तू ही मेरी मां, तू ही पिता, तू ही भाई, तू ही मित्र, तू ही विद्या, तू ही धन और तू ही मेरा सर्वस्व है।"
इन श्लोकों को समझकर बोलने से आदमी का मन ईश्वर की शरण में जायगा। जाने अनजाने सारे दिन कुछ अपराध हुए हों तो क्षमायाचना से मन को शांति मिलेगी और ईश्वर को सर्वस्व माननेवाला सभी वासनाओं से मुक्त हो जायेगा । इस प्रकार सब भार बिस्तर के बाहर छोडकर शांत और स्वस्थ मन ईश्वर के स्वाधीन करते हुए सोनेवाले की निद्रा दैवी बन जाती है। गहरी और स्वस्थ निद्रा भगवान का वरदान है। ऐसी निद्रा लाने के लिए मन को तैयार करना पडेगा । पूरा दिन हमें जीवन-संघर्ष में बिताना पडता है। मन के उपर अनेक आघात-प्रत्याघात होते हैं। सफलता-निष्फलता, हर्ष और शोक, सुख और दुःख, ऐसे अनेक द्वंद्व मन पर असर करते हैं। मनुष्य को अनेक पहेलियों को छुडाने की चिंता लगी रहती है। यह सब सहन करते हुए मन को स्वस्थ रखने की 'जडी-बुटी' त्रिकाल संध्या है। रात में कृतज्ञतापूर्वक प्रभु को याद करते हुए निद्रा सात्विक बनानी है। सोते समय जो विचार लेकर मन सोता है, वही विचार लेकर सुबह जगता है। सारी नींद में वह विचार मन के साथ रहता है, इसलिए रातको प्रार्थना करते हुए भगवान की स्मृति लेकर सोने से मन का शुद्धीकरण होता है।
बालक के पैर में चोट लगती है तो वह दिन में उसे साफ नहीं करने देता है, लेकिन जब वह सो जाता है तब मां उसे साफ करके दवा लगाती है। मन का भी ऐसा ही है। दिन में मन अनेक जगह भटकता है; लेकिन रात को सोते समय यदि वह सात्विक विचार लेकर सो जाय तो धुलकर स्वच्छ हो जायेगा । इसलिए रात में सोते समय ऊपर के श्लोक बोलते हुए प्रभु को याद करके सोना चाहिए। ऐसी बात शायद पूरानी लगती हो, लेकिन आधुनिक दृष्टिकोण से विचार करने से उसकी आवश्यकता समझ में आयेगी। आज मानव समाज खुद को सुधरा हुआ समझता है। चाहे जिस देश में रहनेवाला मनुष्य हो वह Thank you और Sorry की सभ्यता मानता है, स्वीकारता है। छोटे बालक को कोई पराया आदमी पिपरमिन्ट दे तो 'Thank You' कहने के लिए सिखानेवाले हम सुधरे हुए मानव, निस्वार्थ और अविरत प्रेम की वर्षा बरसानेवाले परमेश्वर को 'Thank You' कहने से क्या पुराने बन जायेंगे? ईश्वर को हमारे Thanks की अपेक्षा नहीं है। हम आभार मानें या न माने सुबह सूरज तो उगनेवाला ही है, फूल खिलनेवाले ही है। भगवान अपने प्रिय बालक के लिए जगत जीने योग्य बनानेवाला ही है, बारिश होनेवाली है, अनाज उगनेवाला है, वैश्वानर प्रदीप्त होनेवाला है और मानव आनंद से खानेवाला ही है। लेकिन यह सब मेरे लिए सतत जो शक्ति कर रही है उसका आभार माननेवाला सभ्य मैं न बनूं तो मैं सुधरा हुआ कैसा?
मेरे आभार की उस महान शक्ति को आवश्यकता नहीं है, लेकिन मेरे स्वयं के विकास के लिए यह ''त्रिकाल संध्या" बहुत आवश्यक है। ऐसा विचार करते हुए हर मानव को सुबह, भोजन के समय और रात को सोते समय ऊपर के श्लोक बोलकर कृतज्ञ भाव से ईश्वर को याद करना चाहिए। ईश्वर का सानिध्य का सतत अनुभव लेकर जीवन को विकास के पथ पर मोडने के लिए त्रिकाल संध्या करना अति आवश्यक है, ऐसा पूज्य 'दादा' को लगा और इसलिए उन्होंने स्वाध्याय परिवार को इस छोटी-पगडंडी पर चलकर ईश्वर के प्रेममय स्पर्श का अनुभव पाने का रास्ता दिखाया है।
त्रिकाल संध्या
1) प्रात: संध्या :
1) कराग्रे वसते लक्ष्मी करमूले सरस्वती । करमध्ये तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥
2) समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले । विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥
3) वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
2) मध्यान्ह संध्या :
1) यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: । भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥
2) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पनम् ॥
3) अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नम् चर्तुविधम् ॥
4) ओऽम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ओऽम् शांति: शांति: शांति:
3) सायं संध्या :
1) कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: ॥
2) करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम्
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो
3) त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव,
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥

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